निराशा सच में नहीं - कविता

 शीर्षक - " निराशा सच में नहीं "





निराशा सच में नहीं,
वहम है ये तो 

जिस तरह से मृग को
पानी दिखता,
ज्यों कलम पकड़कर
अनपढ़ लिखता,
ज्यों सावन की पहली बारिश
ठंडी नहीं, दहम है ये तो,

निराशा सच में नहीं,
वहम है ये तो 

ज्यों ठहर-ठहर के 
सपने आते,
ज्यों अपने बनकर 
अपने आते,
दिशा एक में चलने वाला
परि-वहन है ये तो,

निराशा सच में नहीं,
वहम है ये तो 

जैसे चाँद पे बैठी
बूढ़ी दादी,
धूप में बारिश तो
गीदड़ की शादी,
ना मानो कहना
तो हो बर्बादी,
सिखाया समाज ने तो
हमने भी हाँ की,

विजेता भी कहता फिरे
खुदा का रहम है ये तो,

निराशा सच में नहीं,
वहम है ये तो 

                                             - (नवीन श्योराण)

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